Friday 17 August 2012


कर्तेपणा

एक गोष्ट अशी पण : 
एक ८ वर्षाची मुलगी आइसक्रीम पार्लरला गेली.
वेटर : काय पाहिजे?
मुलगी : भाऊ, हे  कोनमधील आइसक्रीम कितीला आहे?
वेटर : १५ रुपयाला 
मुलीने स्वतःच्या पर्समध्ये  किती पैसे आहेत हे बघितले आणि छोट्या कोनमधील आइसक्रीम ची किंमत विचारली.
वेटर ने रागात येऊन सांगितले : १२ रुपयाला
मुलीने छोट्या कोनमधील आइसक्रीम देण्यास सांगितले.
वेटरने एका प्लेटमध्ये तो छोटा कोन ठेवून टेबलावर रागाने आपटून दिला.
मुलगी आइसक्रीम खावून झाल्यावर पैसे ठेवून निघून गेली.
जेव्हा वेटर प्लेट घेवून जाण्यासाठी आला तेव्हा त्याच्या डोळ्यात पाणी आले.
कारण.....
त्या मुलीने त्या वेटर साठी ३ रुपये टीप्स म्हणून ठेवून गेली होती. ....
गोष्टीतला गाभार्थ हा कि: आपल्याकडे जे काही आहे त्याच्यातच लोकांना पण खुश ठेवण्याचा प्रयन्त केला पाहिजे.
आपल्या दररोजच्या जीवनात अशा किती गोष्टी आपल्या  नकळत करतो? आणि जेव्हा काही करण्याचा प्रयन्त करतो, तेव्हा त्या कर्तेपणाचा आपल्याला "अभिमान" होतो. मग अशा प्रकारच्या "चांगुलपणाचा" देव कसा बर स्वीकार करेल? बरोबर ना?

पवित्र श्रावण मास का आज आखरी दिन और कल हे श्रावण अमावस्या. आज श्रावण मास का आखरी गुरुवार भी है, और ईस शुभदिन के संध्याकाल समय हम सह परिवार दर्शन करेंगे बारा ज्योतिर्लिंग के बारहवे ज्योतिर्लिंग श्री घृष्णेश्वर जी का । और इस दर्शन के साथ हि हमारी श्रावण मास के चलते बारा ज्योतिर्लिंग दर्शन यात्रा संपुर्ण होगी । सभी भक्तोंसे वानंती है कि, ईस यात्रा के बारे में कुछ टिपणी देनी हो तो अवश्य दें ।  तो फिर चलें,


१२) घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग :- महाराष्ट्र में औरंगाबाद के नजदीक दौलताबाद से ११ किलोमीटर दूर घृष्णेदश्वंर महादेव का मंदिर स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुछ लोग इसे घुश्मेश्वर के नाम से भी पुकारते हैं। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएँ इस मंदिर के समीप ही स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण देवी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था। शहर से दूर स्थित यह मंदिर सादगी से परिपूर्ण है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मीर दूर वेरुलगाँव के पास स्थित है।

पौराणिक कथा :-
इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणों में यह कथा वर्णित है- दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी।  ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया। पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी।  भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी।  सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान्‌ शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा। जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान्‌ शिव भी वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान्‌ शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो!  मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान्‌ शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए।

घुष्णेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदाई है।  ।। ॐ नमः शिवाय ।।

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